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Tuesday, November 22, 2011

ऐ जिन्दगी, तेरी पनाहों में कितने रंग देखे मेने,
हर रंगाई में तेरा वजूद पाता हूँ.
क्या हरा और क्या पीला,
खिलने की हर अदा पे तेरा नाम पाता हूँ.

आँखों के इस लत क्या करू,
तू इसे बगावत की कला सिखा गयी,
ठगते ठगते मैं खुद से ठगा सा रहता हूँ.
तेरे हाथों पे बिखरी हुई मेहँदी की ठंडक,
हल्के हल्के आवाज़ों से तेरी तरफदारी में व्यस्त है,
एक नज़र देखों तो सही,
तेरे हाथों में कम्पन क्यों है.

ये जिन्दगी तेरी पनाहों में कितने रंग देखे मेने,
हर रंगाई में तेरा वजूद पाता हूँ.

Friday, October 14, 2011

सपनों से गुप्तगू

कल रात मेने सपनों से कुछ बातें की,
इधर उधर भागती सपनों को,
मेने अपने पास बिठाया I
मेरी निहारती आँखों ने कई सवाल किये उससे,
कि क्या तुम कभी सोती नहीं?
कि क्या तेरे आँखों में सपना नहीं?
इधर उधर भागती सपनों को सुकून कहाँ,
मानो किसी और आँखों ने इसे दावत दी हो I
मेरी आँखे खुली,
लेकिन अभी भी रात बांकी है,
मेरा बिस्तर अभी भी धंसा सा है,
जैसे कोई बैठा हो, मेरे सिरहाने के पास,
अभी में देख सकता हूँ,
घर के कोने में एक घुंगरू सा कुछ है,
शायद उसी का है I
इधर उधर भागती सपनों को चैन कहाँ,
फिर मिलना है उससे,
आखिर उसका सामान जो लौटना है...

Friday, September 30, 2011

हिंदी हूँ..

हिंदी हूँ,
लेकिन किसकी हूँ?
अपने ही घर में मैं,
सबसे पूछती हूँ.
रोती हूँ जब,
सब मुझसे पूछते है, कि
क्यों मैं उनकी हूँ !
हिंदी हूँ,
लेकिन किसकी हूँ.

नहीं पसंद है मुझे,
अपना दिवस,
बस कुछ जगह दे दो,
मेरे अपने घर में,
एक कोना दे दो,
जहाँ में रख सकूँ अपने प्यारे,
प्रेमचंद को,
जहाँ दुलार सकू अपने नटखट,
निराला को, नन्हे मैथिलि को,
नफरत से ही सही,
एक बार बोलो तो सही !

हिंदी हूँ,
डरती हूँ तेरे एहसानों से !

Wednesday, September 7, 2011

कैसी हो!

अपनी गलियां अकसर तेरी पता पूछती है,
मेरी ख़ामोशी तेरी बेवफाई को कितना छुपाये,
मेरी धरकन तो सब बयां करती है.
और अनजान सा हो जाता हूँ ,
उन चीजो से जिसने ठहाके लगाये थे,
तेरे मेरे संग.
पत्थरों का ठक-ठक,
डालियों का वो झुरमुठ,
बादलों का ठंढक,
आज भी तेरे संग का एहसास दिलाता है.
न जाने कैसे पता इनको कि में तेरे बिना,
जी नहीं सकता,
अकसर मेरा हाल पूछने चले आते है.
इसे क्या नाम दू,
पता नहीं,
लेकिन चाहता हूँ,
तेरे होने की चाहत मुझे बर्बाद करे।

दीपक...

Tuesday, August 30, 2011

गर फिर से.. तो क्या !

गर तू फिर मिल भी जाये तो क्या,
वो नज़रे वही होगी,
जिससे हमने कई सपने देखे थे,
जिससे छलकते थे मय और,
गर छलके फिर से,
तो क्या वही शमा होगी,
जो तेरी सादगी से रोशन थी I
क्या वो हथेली वही होगी,
जिसके लकीरों में हमने बनाये थे एक पगडण्डी,
जो हमें लेकर जाती थी हमारे अपने शहर,
आज भी में उस गलियारे से गुजरता हूँ,
जब तुम मेरे साथ होते हो I
न जाने क्यों गिरने लगता हूँ उस पगडण्डी पे,
जब तुम साथ नहीं होते,
गर तू फिर मिल भी जाये तो क्या,
तेरा सर फिर मेरे कांधे पे होगा,
नहीं न !

" दीपक"

Monday, August 29, 2011

लोकपाल और जन-लोकपाल! आशाएं और निराशाएं....

देश की सड़कों ने एक बार फिर उस जज्बात को महसूस किया जो शायद कई साल पहले आज़ादी की लड़ाई में महसूस किया था. लेकिन इस बार बहुत कुछ बदला बदला सा था. आन्दोलन का स्वरुप कमोबेश गाँधी जी के द्वारा सुझाये गए रास्तों के अनुसार था, लेकिन भावनाएं मिली जुली थी. रामलीला मैदान में गाँधी और भगत सिंह को साथ साथ देखा गया. लोगों के हाथ में भगत सिंह, आज़ाद और राजगुरु का पोस्टर था और ओठों पे " रघुपति राघव राजा राम". मैं यहाँ यह नहीं बताने आया हूँ की जन-लोकपाल का भविष्य क्या है, लेकिन इतना जरुर कहूँगा कि जहाँ कि जनता अपने अधिकारों के लिए जागरूक हो.. वहां कोई उसे पथभ्रमित नहीं कर सकता. क्या ये काम है कि जिस सिध्यांतों की धज्जियाँ हर चाय की चुसकी के साथ उडती है और समय काटने के लिए नौजवान गाँधीवादी विचारधारा को अपना निशाना बनाते है, आज उसी सोच के बदोलत पुरे भारत में एक जन-शैलाब का उठा जिसमे न कोई मुसलमान था, न कोई हिन्दू और न ही कोई दलित.

यह वाकई बहुत गंभीर प्रश्न है कि क्या लोकपाल भ्रष्ट नहीं हो सकता? शायद आप की बातों में सच्चाई हो, लेकिन ऐसा भी तो हो सकता है कि लोकपाल भ्रष्ट न हो.. और भ्रष्ट हो भी तो उसके ऊपर नकेल कसी जा सकती है, ऐसा प्रावधान है जन-लोकपाल में.. अगर हम इस बात से डरते है कि भ्रष्ट लोकपाल पे नकेल नहीं कसी जा सकती तो हमलोग अपने लोकतान्त्रिक व्यवस्था पे शक कर रहे है..जैसा कि कुछ राज्यों में लोकपाल के होते हुए भी वहां भ्रषाचार अपने चरम सीमा पे है और कहीं कहीं तो लोकपाल ही नहीं है. करीब 18 राज्यों में लोकायुक्त है और वहां कई सम्भेधानिक मजबूरियां है जो इसे अपने काम करने में बाधा डाल रही है. लेकिन वहीँ यद्दुराप्पा जैसे मजबूत मुख्यमंत्री को अपना पद छोरने में समय नहीं लगा.. तो हम कैसे कीसी नतीजे पे आ सकते है, जबतक इसे जमीनी स्तर पे लागु न किया जाये. बिहार में मृतप्राय लोकपाल को पुन पटरी पे लाने के लिए नितीश कुमार ने फैसला किया है कि लोकायुक्त के अधिकार क्षेत्र को बढ़ाया जायेगा और मुख्यमंत्री को भी इस दाएरे में लाया जायेगा.. ताकि लोगों का विश्वास लोकतान्त्रिक व्यवस्था में कायम रहे.. हमारे पास और भी कई कानून है जो भारत को एक मजबूत लोकतंत्र बनाने में काफी अहम् भूमिका निभाती है.

कोई भी कानून अकेले भ्रष्टाचार को ख़त्म नहीं कर सकती, इसके लिए हर एक को जानना होगा कि आखिर इस कानून से लोगों का क्या फायदा होगा और कैसे इसे प्रयोग में लाया जाये..

Friday, March 11, 2011

तुम बहुत जिद्दी हो गए हो.
लेकिन जिद्द कभी कभी खुदाई का एहसास दिलाता है.
शायद इसलिए तुमसे शिकायत नहीं.
फिर भी बहुत जिद्दी हो गए हो.

जब कभी मैं चाँद को देखता हूँ.

तुम मचलने लगते हो.
मैं नहीं जनता क्यों.
लेकिन तुम्ही हो जो मुझे चाँद से वफाई सिखाता है.
बहुत जिद्दी हो गए हो.