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Saturday, January 9, 2010

मैं समझ नहीं पाया हूँ अब तक यह रहस्य
मरने से क्यों साडी दुनिया घबराती है,
क्यों मरघट क सूनापन चीखा करता है,
जब मिटटी मिटटी से निज ब्याह रचती है॥

फिर मिटटी तो मिटतीनहीं भाई,
वह सिर्फ शक्ल की चोली बदला करती है,,
संगीत बदलता नहीं किसी सरगम का,
केवल गायक की बोली बदला करती है॥

सूरज से प्राण,धरा से पाया है शरीर
ऋण लिया हमने वायु से इन सासों का
सागर ने दान दिया है,आंसूं का प्रवाह,
जो जिसका है, उसको उसका धन लौटाकर
मृतु के बहाने हम कर्ज यहीं चुकाते है,
इसको कोई कहता है अभिशाप ताप,
वरदान समझ कुछ लोग इस पर ख़ुशी मानते है॥


नज़रों की गुप्तगुं.....
कितना हसीन होता था वो लम्हा॥
हर पल नई जिन्दगी का एहसास,
एक नजर की प्यासी होती थी जिन्दगी,
कितना हसीन होता था वो मंजर॥
जहाँ होती थी नजरों की गुप्तगुं
हजारों सवाल रहते थे,
मन में॥
मन कहता था की ...
कुछ सवलत करने है उस मसुम्यिअत से,
लेकिन नज़र उठते ही बेबाक सा हो जाना मेरा॥
अभी तक समझ नहीं पाया ,
क्या कहती थी वो नज़र॥
हर नज़र में नयापन,
बहुत हसीन होता था वो बेबाकपन॥