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Wednesday, February 24, 2010

THANK U.......BLWD

"माय नेम इज खान एंड आई ऍम नोट अ टेरेरिस्ट "। पूरी फ़िल्म की कहानी इसी संवाद में निहित है। मुस्लमान के राष्ट्रीय और अंतर-राष्ट्रीय स्थिति पर आधारित यह फ़िल्म पुरे कोम के आत्मविश्वास का प्रतिक है।

बालिवूडकी पहली ऐसी अंतर-राष्ट्रीय फ़िल्म है, जिसके विषय वस्तु के सामने इसके नायकों क कद बौना हो गया। इस तरह की फिल्मे हमेशा अपने साथ कुछ ऐसा सन्देश लाता है जिसे यदि वाकई जमीं पर उतारा जाये तो मानव सभ्यता अपने वास्तविक रूप में दिखने लगेगी। हालीवूद ने भी कुछ वर्षों पहले एक ऐसी फ़िल्म लोगों के सामने रखा था जिसमे लोगों द्वारा की जा रही गलतिओं के खाम्मियाज़ा को महाविनाश के रूप में दिखाया गया था-"द डै आफ्टर टुमोरो "। भले ही हम लोग इस फ़िल्म में दिखाए गए महाविनाश के तांडव को विज्ञानं और एनिमशनक करिश्मा माने लेकिन वास्तविकता से एक इंच भी इधर या उधर नहीं है।

यहाँ मैंने होलीवुड और बोलीवुड क मानव कल्याण के प्रति योगदान का एक छोटा सा उदहारण पेश किया है। इसे कई उदाहरने है, जिसका राष्ट्रीय और अंतर-राष्ट्रीय सरोकार है। एक ऐसा समय था, जब फिल्मों में सदाबहार गाने, त्रिकोनिये संबंध और नायकों को एक्शन में दिखाया जाता था। लेकिन समय बदल चूका है, अब फिल्मों की विषय वस्तु जहाँ आने वाले महाविनाश पर आधारित होती है वहीँ कुछ वास्तविक पहलुओं पर भी आधारित होती है, जो हमारे समाज क एक अंग होता है। अब महत्वपूर्ण यह नहीं है की हम क्या देख रहे है महत्वपूर्ण यह होता है की उस फिल्मों में हम अपने आपको कहाँ और कैसे देख पा रहे है। लेकिन कुछ दिन पहले IPCC जैसे प्रतिष्ठित संसथान की एक गलती ने विश्व के कुछ पूंजीपतियो को बोलने क मौका मिला, और उन लोगों ने अपने फायदों के लिए IPCC और TERI जैसे विश्वस्तारियें और ग्लोबल वार्मिंग से विश्व को बचाने में लगी एक मात्र संसथान के अस्तित्व पर अंगुली उठाई। इस बात का ठोस साबुत है की कुछ वर्ग अभी भी ऐसे है जो अपने फायदों के लिए अपने आने वाली पीढ़ी को मौत के मुह में दकेल रहा है। यदि अभी भी नहीं संभले तो कब सम्लेंगे....

Friday, February 19, 2010

कुछ बहाने अच्छे होते है......

व्यस्तता के इस रंग में रंगे इन्सान ख़ुशी की तलाश में पल प्रति पल प्रयत्नशील रहता है। इस प्रयत्नशील अवस्था में मनुष्य ख़ुशी की तलाश में सफल भी होता है और कहीं कहीं असफल होने पर खुश होने क बहाना भी बना लेते है। मानवीय- व्यव्हार क यह एक एसा अध्याय है, जो सामान रूप से हर मनुष्य में पाई जाती है। मैं इस अध्याय को पढने की कोशिश करता रहता हूँ, वैसे मैं अर्थशास्त्र क विद्यार्थी रहा हूँ, फिर भी पता नहीं पत्रकारिता करने के पश्चात् मनोविज्ञान में अपेक्छाक्रित ज्यादा रूचि रहता है। खैर, ....... गत १४ फरबरी मेरा पूरा दिन मनोविज्ञान के अध्ययन में ही गुजरा। काफी प्रवाहित कर देने वाला परिणाम सामने आया। मैं सोच रहा था की आखिर खुछ लोग क्यों इस धरा से विमुख रहते है, जो इस प्रेम की बारि में बबूलक पेरलगाने की कोशिश करते है। लेकिन भारतीय होने के नाते मेरे मन में एक सकारात्मक विरोध भी हुआ , कि लोग करवाचौथ, तीज, और वसंत पर्वों को इस कदर क्यों नहीं मानते है। इसमें कोई दो राय नहीं है की भारतियों के लिए तह एक प्रसिध पर्व है और लोग इसे बरे उत्साह से मानते है, लेकिन केवल माध्यम वर्गों में.... आज भी भारत एक इकलोता देश है जहाँ कुछ एसे क्षेत्रियें पर्व है जिसका सम्बन्ध लोगों के जीविका से जुरा है फिर भी हम लोग शायद ही जानते होंगे।
एक बात तो सत्य है कि इस वैश्विककरण के दौर में प्रोडक्ट तो प्रोडक्ट यदि "भावना" को भी ढंग से लोगों के सामने रखा जाये प्रभाव पक्ष में होगा। शुक्रगुजार हूँ कि नफरत के इस दौर में कम से कम एक दिन तो प्रेममय हो जाती है। आखिर कार कुछ बहाने अच्छे होते है......

Thursday, February 11, 2010

चलते-चलते.......

मैं रोज शाम को नॉएडा पढ़ाने बस से जाता हूँ और पुनः उसी रस्ते घर वापस लोटता हूँ। लोटते वक्त बहुत ऐसे चेहरें को देखता हूँ,जो अपने ऑफिस से घर आ रहा होता है। आधे घंटे के इस सफर में मैं सभी चेहरों को पढने की कोशिश करता हूँ। चकित कर देने वाला परिणाम सामने आता है। कभी कभी मुझे "विकसित इंडिया" की छवि दिखाई देती है, तो कभी "भारत" को महसूस करता हूँ।
"विकसित इंडिया" शब्द कई सामाजिक पहलुओं क दर्शन कराती है। जिसमे आधुनिक सामाजिक सरोकार रखने वाला शब्द "सशक्त महिला" भी शामिल है। महिलाओं क पुरुषों के साथ कदम से कदम मिलाना "सशक्तिकरण" शब्द के साथ इंसाफ होता नजर आता है। वहीँ बस के किसी दुसरें सीट पर महिला अपने रुढ़िवादी रंग में दिखती है ,तो "सशक्तिकरण अभियान" तरस आता है। वो महिला कैसे सशक्त हो सकती है जो वास्तव में "महिला" है। कभी कभी भारतीय राजनीती को आम आदमी के आक्रोश क शिकार बनते देखता हूँ ,तो सोचता हूँ इन लोगों का राजनीती में रूचि होना केवल टाइम पास तक सिमित है या कुछ और। अगर ये सिर्फ टाइम पास है तो लोकतंत्र के लिए दुर्भाग्य की बात है।
जहाँ तक "भारत" शब्द की बात है तो मैं बहुत ही उलझन में पर जाता हूँ, की आखिर कैसे हमलोग दो - दो मुखोटा एक साथ पहन सकते है। जिसके फितरत मैं भारतीयता हो वो इंडियन कैसे बन सकता है। बस के इस छोटें से सफर में एक अहम् सवाल मेरे मन में आता है, की क्या विकसित होने के लिए "इंडियन" होना आवश्यक है ? मेरे लिए अत्यंत महत्वपूर्ण है, औरों के लिए न भी हो सकता है क्योंकि यह सवाल व्यक्तिगत है। चलते चलते में रोज बसों में इस सवाल क जवाब टटोलता हूँ, लेकिन कभी हाँ कभी ना जेसी स्थिति बन जाती है।