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Thursday, February 11, 2010

चलते-चलते.......

मैं रोज शाम को नॉएडा पढ़ाने बस से जाता हूँ और पुनः उसी रस्ते घर वापस लोटता हूँ। लोटते वक्त बहुत ऐसे चेहरें को देखता हूँ,जो अपने ऑफिस से घर आ रहा होता है। आधे घंटे के इस सफर में मैं सभी चेहरों को पढने की कोशिश करता हूँ। चकित कर देने वाला परिणाम सामने आता है। कभी कभी मुझे "विकसित इंडिया" की छवि दिखाई देती है, तो कभी "भारत" को महसूस करता हूँ।
"विकसित इंडिया" शब्द कई सामाजिक पहलुओं क दर्शन कराती है। जिसमे आधुनिक सामाजिक सरोकार रखने वाला शब्द "सशक्त महिला" भी शामिल है। महिलाओं क पुरुषों के साथ कदम से कदम मिलाना "सशक्तिकरण" शब्द के साथ इंसाफ होता नजर आता है। वहीँ बस के किसी दुसरें सीट पर महिला अपने रुढ़िवादी रंग में दिखती है ,तो "सशक्तिकरण अभियान" तरस आता है। वो महिला कैसे सशक्त हो सकती है जो वास्तव में "महिला" है। कभी कभी भारतीय राजनीती को आम आदमी के आक्रोश क शिकार बनते देखता हूँ ,तो सोचता हूँ इन लोगों का राजनीती में रूचि होना केवल टाइम पास तक सिमित है या कुछ और। अगर ये सिर्फ टाइम पास है तो लोकतंत्र के लिए दुर्भाग्य की बात है।
जहाँ तक "भारत" शब्द की बात है तो मैं बहुत ही उलझन में पर जाता हूँ, की आखिर कैसे हमलोग दो - दो मुखोटा एक साथ पहन सकते है। जिसके फितरत मैं भारतीयता हो वो इंडियन कैसे बन सकता है। बस के इस छोटें से सफर में एक अहम् सवाल मेरे मन में आता है, की क्या विकसित होने के लिए "इंडियन" होना आवश्यक है ? मेरे लिए अत्यंत महत्वपूर्ण है, औरों के लिए न भी हो सकता है क्योंकि यह सवाल व्यक्तिगत है। चलते चलते में रोज बसों में इस सवाल क जवाब टटोलता हूँ, लेकिन कभी हाँ कभी ना जेसी स्थिति बन जाती है।

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