Pages

Tuesday, August 30, 2011

गर फिर से.. तो क्या !

गर तू फिर मिल भी जाये तो क्या,
वो नज़रे वही होगी,
जिससे हमने कई सपने देखे थे,
जिससे छलकते थे मय और,
गर छलके फिर से,
तो क्या वही शमा होगी,
जो तेरी सादगी से रोशन थी I
क्या वो हथेली वही होगी,
जिसके लकीरों में हमने बनाये थे एक पगडण्डी,
जो हमें लेकर जाती थी हमारे अपने शहर,
आज भी में उस गलियारे से गुजरता हूँ,
जब तुम मेरे साथ होते हो I
न जाने क्यों गिरने लगता हूँ उस पगडण्डी पे,
जब तुम साथ नहीं होते,
गर तू फिर मिल भी जाये तो क्या,
तेरा सर फिर मेरे कांधे पे होगा,
नहीं न !

" दीपक"

No comments:

Post a Comment