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Sunday, June 14, 2009

यादों के आँगन में.......
फिर यूँ ही यादों के आँगन में ताकने को मन मचला....
लवों पे हँसी , दिल में खुशियों की किलकिलाहट,
डरा सा, और उत्साहित भी...
फिर आँगन के आँचल में खेलने को मन मचला।
मासूम सा चेहरा , बेखौफ सी नज़र....
pahaaron के goud में खेलती हवाओं सी मदमस्त...
मन में शरारत दिल में लिए सपनो की बारात...
फिर इसी बचपन को बाँहों में समेटने को मन मचला।
कहाँ गयी वो बचपन....
में सहम सा गया,,,,
डर सा गया॥
कहाँ बिखर गयी वो नाजुक सपनों के घरोंदे...
अरे ये क्या....
नज़र में खौफ क्यो....
सही ग़लत में फर्क क्यो.....
फिर वो शरारत देखने को मन मचला...
फिर वो बचपन जीने को मन मचला।
कहाँ जाती है बचपन....
क्यों जिन्दगी जीने को मजबूर होते हम,
क्यों कम गिरते , ज्यादा संभलते हम...
क्यों यादों के आँगन में ताकने को मचलते हम...
क्या यही वो बचपन है.......

2 comments:

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  2. arre wah Deepak bhaiya aapka poem toh humme v apni bachpan ki yaad dila diya.......Peehu ko dekhne k baad shayad se aap v apne bachpan ko yaad karne pe majbur ho gaye............

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