Monday, August 29, 2011
लोकपाल और जन-लोकपाल! आशाएं और निराशाएं....
Friday, March 11, 2011
Tuesday, September 28, 2010
मत बाटों इन्सान को..
बाँट लिया भगवन को,
धरती बांटी सागर बाटा
मत बांटों इन्सान को।
अभी रह तो शुरू हुई है,
मंजिल बैठी दूर है,
उजीयाला के महलों में बंदी,
हर दीपक मजबूर है।
मिला न सूरज का संदेशा
हर घटी मैदान को,
धरती बांटी सागर बाटा -
मत बाटों इन्सान को।
अब भी हरी भरी धरती है,
ऊपर नील वितान है।
अभी प्यार का जल देना है,
हर प्यासी चट्टान को।
धरती बांटी सागर बाटा,
मत बाटों इन्सान को।
Saturday, August 21, 2010
जो बीत गयी सो बात गयी....
जाने को ही सब आयें है , सब जायेंगे,
चलने की तैयारी ही तो है जीवन,
कुछ सुबह गएँ, कुछ डेरा शाम उठाएंगे।
संध्या को जब सूरज डूबता है पच्शिम मे,
तब कितने फूल बाग में मुरझा जाते है,
जब सुबह खिसक कर, चाँद कहीं सो जाता है....
तब कितने आंसू धरती पर उग आते है।
Thursday, August 5, 2010
Friday, April 23, 2010
यादों की लकीरें...
भूलने की कोशिश में था, अचानक
गलियों की हुरदंग ताज़ा हो गयी,
जी चाहता है, समेट लूँ उस ,
जेठ की तपती धुप में दौरती तपिश को,
जिससे कभी गहरी दोस्ती निभाई थी हमने,
उस महफ़िल को सजा दिया उसने,
जहाँ हमने की थी थोरी सी गप्पे,
ये कौन सी रौशनी थी, जिससे मेरी आँखें चौधियां गयी ,
बंद आँखों में खीच गयी वो लकीरें,
जिस पर जमा था समय का धुल।
Wednesday, February 24, 2010
THANK U.......BLWD
"माय नेम इज खान एंड आई ऍम नोट अ टेरेरिस्ट "। पूरी फ़िल्म की कहानी इसी संवाद में निहित है। मुस्लमान के राष्ट्रीय और अंतर-राष्ट्रीय स्थिति पर आधारित यह फ़िल्म पुरे कोम के आत्मविश्वास का प्रतिक है।
बालिवूडकी पहली ऐसी अंतर-राष्ट्रीय फ़िल्म है, जिसके विषय वस्तु के सामने इसके नायकों क कद बौना हो गया। इस तरह की फिल्मे हमेशा अपने साथ कुछ ऐसा सन्देश लाता है जिसे यदि वाकई जमीं पर उतारा जाये तो मानव सभ्यता अपने वास्तविक रूप में दिखने लगेगी। हालीवूद ने भी कुछ वर्षों पहले एक ऐसी फ़िल्म लोगों के सामने रखा था जिसमे लोगों द्वारा की जा रही गलतिओं के खाम्मियाज़ा को महाविनाश के रूप में दिखाया गया था-"द डै आफ्टर टुमोरो "। भले ही हम लोग इस फ़िल्म में दिखाए गए महाविनाश के तांडव को विज्ञानं और एनिमशनक करिश्मा माने लेकिन वास्तविकता से एक इंच भी इधर या उधर नहीं है।
यहाँ मैंने होलीवुड और बोलीवुड क मानव कल्याण के प्रति योगदान का एक छोटा सा उदहारण पेश किया है। इसे कई उदाहरने है, जिसका राष्ट्रीय और अंतर-राष्ट्रीय सरोकार है। एक ऐसा समय था, जब फिल्मों में सदाबहार गाने, त्रिकोनिये संबंध और नायकों को एक्शन में दिखाया जाता था। लेकिन समय बदल चूका है, अब फिल्मों की विषय वस्तु जहाँ आने वाले महाविनाश पर आधारित होती है वहीँ कुछ वास्तविक पहलुओं पर भी आधारित होती है, जो हमारे समाज क एक अंग होता है। अब महत्वपूर्ण यह नहीं है की हम क्या देख रहे है महत्वपूर्ण यह होता है की उस फिल्मों में हम अपने आपको कहाँ और कैसे देख पा रहे है। लेकिन कुछ दिन पहले IPCC जैसे प्रतिष्ठित संसथान की एक गलती ने विश्व के कुछ पूंजीपतियो को बोलने क मौका मिला, और उन लोगों ने अपने फायदों के लिए IPCC और TERI जैसे विश्वस्तारियें और ग्लोबल वार्मिंग से विश्व को बचाने में लगी एक मात्र संसथान के अस्तित्व पर अंगुली उठाई। इस बात का ठोस साबुत है की कुछ वर्ग अभी भी ऐसे है जो अपने फायदों के लिए अपने आने वाली पीढ़ी को मौत के मुह में दकेल रहा है। यदि अभी भी नहीं संभले तो कब सम्लेंगे....