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Monday, August 29, 2011

लोकपाल और जन-लोकपाल! आशाएं और निराशाएं....

देश की सड़कों ने एक बार फिर उस जज्बात को महसूस किया जो शायद कई साल पहले आज़ादी की लड़ाई में महसूस किया था. लेकिन इस बार बहुत कुछ बदला बदला सा था. आन्दोलन का स्वरुप कमोबेश गाँधी जी के द्वारा सुझाये गए रास्तों के अनुसार था, लेकिन भावनाएं मिली जुली थी. रामलीला मैदान में गाँधी और भगत सिंह को साथ साथ देखा गया. लोगों के हाथ में भगत सिंह, आज़ाद और राजगुरु का पोस्टर था और ओठों पे " रघुपति राघव राजा राम". मैं यहाँ यह नहीं बताने आया हूँ की जन-लोकपाल का भविष्य क्या है, लेकिन इतना जरुर कहूँगा कि जहाँ कि जनता अपने अधिकारों के लिए जागरूक हो.. वहां कोई उसे पथभ्रमित नहीं कर सकता. क्या ये काम है कि जिस सिध्यांतों की धज्जियाँ हर चाय की चुसकी के साथ उडती है और समय काटने के लिए नौजवान गाँधीवादी विचारधारा को अपना निशाना बनाते है, आज उसी सोच के बदोलत पुरे भारत में एक जन-शैलाब का उठा जिसमे न कोई मुसलमान था, न कोई हिन्दू और न ही कोई दलित.

यह वाकई बहुत गंभीर प्रश्न है कि क्या लोकपाल भ्रष्ट नहीं हो सकता? शायद आप की बातों में सच्चाई हो, लेकिन ऐसा भी तो हो सकता है कि लोकपाल भ्रष्ट न हो.. और भ्रष्ट हो भी तो उसके ऊपर नकेल कसी जा सकती है, ऐसा प्रावधान है जन-लोकपाल में.. अगर हम इस बात से डरते है कि भ्रष्ट लोकपाल पे नकेल नहीं कसी जा सकती तो हमलोग अपने लोकतान्त्रिक व्यवस्था पे शक कर रहे है..जैसा कि कुछ राज्यों में लोकपाल के होते हुए भी वहां भ्रषाचार अपने चरम सीमा पे है और कहीं कहीं तो लोकपाल ही नहीं है. करीब 18 राज्यों में लोकायुक्त है और वहां कई सम्भेधानिक मजबूरियां है जो इसे अपने काम करने में बाधा डाल रही है. लेकिन वहीँ यद्दुराप्पा जैसे मजबूत मुख्यमंत्री को अपना पद छोरने में समय नहीं लगा.. तो हम कैसे कीसी नतीजे पे आ सकते है, जबतक इसे जमीनी स्तर पे लागु न किया जाये. बिहार में मृतप्राय लोकपाल को पुन पटरी पे लाने के लिए नितीश कुमार ने फैसला किया है कि लोकायुक्त के अधिकार क्षेत्र को बढ़ाया जायेगा और मुख्यमंत्री को भी इस दाएरे में लाया जायेगा.. ताकि लोगों का विश्वास लोकतान्त्रिक व्यवस्था में कायम रहे.. हमारे पास और भी कई कानून है जो भारत को एक मजबूत लोकतंत्र बनाने में काफी अहम् भूमिका निभाती है.

कोई भी कानून अकेले भ्रष्टाचार को ख़त्म नहीं कर सकती, इसके लिए हर एक को जानना होगा कि आखिर इस कानून से लोगों का क्या फायदा होगा और कैसे इसे प्रयोग में लाया जाये..

Friday, March 11, 2011

तुम बहुत जिद्दी हो गए हो.
लेकिन जिद्द कभी कभी खुदाई का एहसास दिलाता है.
शायद इसलिए तुमसे शिकायत नहीं.
फिर भी बहुत जिद्दी हो गए हो.

जब कभी मैं चाँद को देखता हूँ.

तुम मचलने लगते हो.
मैं नहीं जनता क्यों.
लेकिन तुम्ही हो जो मुझे चाँद से वफाई सिखाता है.
बहुत जिद्दी हो गए हो.

Tuesday, September 28, 2010

मत बाटों इन्सान को..

मंदिर- मस्जिद- गिरिजाघर ने,
बाँट लिया भगवन को,
धरती बांटी सागर बाटा
मत बांटों इन्सान को।

अभी रह तो शुरू हुई है,
मंजिल बैठी दूर है,
उजीयाला के महलों में बंदी,
हर दीपक मजबूर है।

मिला न सूरज का संदेशा
हर घटी मैदान को,
धरती बांटी सागर बाटा -
मत बाटों इन्सान को।
अब भी हरी भरी धरती है,
ऊपर नील वितान है।
अभी प्यार का जल देना है,
हर प्यासी चट्टान को।
धरती बांटी सागर बाटा,
मत बाटों इन्सान को।

Saturday, August 21, 2010

जो बीत गयी सो बात गयी....

किसके रोने से कौन रुका है यहाँ,
जाने को ही सब आयें है , सब जायेंगे,
चलने की तैयारी ही तो है जीवन,
कुछ सुबह गएँ, कुछ डेरा शाम उठाएंगे

संध्या को जब सूरज डूबता है पच्शिम मे,
तब कितने फूल बाग में मुरझा जाते है,
जब सुबह खिसक कर, चाँद कहीं सो जाता है....
तब कितने आंसू धरती पर उग आते है

Friday, April 23, 2010

यादों की लकीरें...

ये कौन सी रौशनी थी, जिससे मेरी आँखें चौंधिया गयी,
भूलने की कोशिश में था, अचानक
गलियों की हुरदंग ताज़ा हो गयी,


जी चाहता है, समेट लूँ उस ,
जेठ की तपती धुप में दौरती तपिश को,
जिससे कभी गहरी दोस्ती निभाई थी हमने,


उस महफ़िल को सजा दिया उसने,
जहाँ हमने की थी थोरी सी गप्पे,
ये कौन सी रौशनी थी, जिससे मेरी आँखें चौधियां गयी ,
बंद आँखों में खीच गयी वो लकीरें,
जिस पर जमा था समय का धुल।





Wednesday, February 24, 2010

THANK U.......BLWD

"माय नेम इज खान एंड आई ऍम नोट अ टेरेरिस्ट "। पूरी फ़िल्म की कहानी इसी संवाद में निहित है। मुस्लमान के राष्ट्रीय और अंतर-राष्ट्रीय स्थिति पर आधारित यह फ़िल्म पुरे कोम के आत्मविश्वास का प्रतिक है।

बालिवूडकी पहली ऐसी अंतर-राष्ट्रीय फ़िल्म है, जिसके विषय वस्तु के सामने इसके नायकों क कद बौना हो गया। इस तरह की फिल्मे हमेशा अपने साथ कुछ ऐसा सन्देश लाता है जिसे यदि वाकई जमीं पर उतारा जाये तो मानव सभ्यता अपने वास्तविक रूप में दिखने लगेगी। हालीवूद ने भी कुछ वर्षों पहले एक ऐसी फ़िल्म लोगों के सामने रखा था जिसमे लोगों द्वारा की जा रही गलतिओं के खाम्मियाज़ा को महाविनाश के रूप में दिखाया गया था-"द डै आफ्टर टुमोरो "। भले ही हम लोग इस फ़िल्म में दिखाए गए महाविनाश के तांडव को विज्ञानं और एनिमशनक करिश्मा माने लेकिन वास्तविकता से एक इंच भी इधर या उधर नहीं है।

यहाँ मैंने होलीवुड और बोलीवुड क मानव कल्याण के प्रति योगदान का एक छोटा सा उदहारण पेश किया है। इसे कई उदाहरने है, जिसका राष्ट्रीय और अंतर-राष्ट्रीय सरोकार है। एक ऐसा समय था, जब फिल्मों में सदाबहार गाने, त्रिकोनिये संबंध और नायकों को एक्शन में दिखाया जाता था। लेकिन समय बदल चूका है, अब फिल्मों की विषय वस्तु जहाँ आने वाले महाविनाश पर आधारित होती है वहीँ कुछ वास्तविक पहलुओं पर भी आधारित होती है, जो हमारे समाज क एक अंग होता है। अब महत्वपूर्ण यह नहीं है की हम क्या देख रहे है महत्वपूर्ण यह होता है की उस फिल्मों में हम अपने आपको कहाँ और कैसे देख पा रहे है। लेकिन कुछ दिन पहले IPCC जैसे प्रतिष्ठित संसथान की एक गलती ने विश्व के कुछ पूंजीपतियो को बोलने क मौका मिला, और उन लोगों ने अपने फायदों के लिए IPCC और TERI जैसे विश्वस्तारियें और ग्लोबल वार्मिंग से विश्व को बचाने में लगी एक मात्र संसथान के अस्तित्व पर अंगुली उठाई। इस बात का ठोस साबुत है की कुछ वर्ग अभी भी ऐसे है जो अपने फायदों के लिए अपने आने वाली पीढ़ी को मौत के मुह में दकेल रहा है। यदि अभी भी नहीं संभले तो कब सम्लेंगे....