Pages

Friday, April 23, 2010

यादों की लकीरें...

ये कौन सी रौशनी थी, जिससे मेरी आँखें चौंधिया गयी,
भूलने की कोशिश में था, अचानक
गलियों की हुरदंग ताज़ा हो गयी,


जी चाहता है, समेट लूँ उस ,
जेठ की तपती धुप में दौरती तपिश को,
जिससे कभी गहरी दोस्ती निभाई थी हमने,


उस महफ़िल को सजा दिया उसने,
जहाँ हमने की थी थोरी सी गप्पे,
ये कौन सी रौशनी थी, जिससे मेरी आँखें चौधियां गयी ,
बंद आँखों में खीच गयी वो लकीरें,
जिस पर जमा था समय का धुल।





No comments:

Post a Comment