Saturday, January 9, 2010
नज़रों की गुप्तगुं.....
कितना हसीन होता था वो लम्हा॥
हर पल नई जिन्दगी का एहसास,
एक नजर की प्यासी होती थी जिन्दगी,
कितना हसीन होता था वो मंजर॥
जहाँ होती थी नजरों की गुप्तगुं
हजारों सवाल रहते थे,
मन में॥
मन कहता था की ...
कुछ सवलत करने है उस मसुम्यिअत से,
लेकिन नज़र उठते ही बेबाक सा हो जाना मेरा॥
अभी तक समझ नहीं पाया ,
क्या कहती थी वो नज़र॥
हर नज़र में नयापन,
बहुत हसीन होता था वो बेबाकपन॥
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