ये कैसा अधिकार....
धारा ३७७ पर डेल्ही उच् न्यायलय का बयान एक इसे समाज की और इशारा करती है, जहाँ भारतीय सभ्यता को मौलिक अधिकार के हतियार से कतला होता नजर आ रहा है। लोगों में आधुनिकता आने से लोग अपनी मूल पहचान खोती नज़र आती है। धारा ३७७ बहुत साल पहले एक अंग्रेज शासक लोर्ड मेकाले द्वारा लागु किया गया था, जिसमे समलेंगिकता को कानूनन अपराध बताया गया है। ये कानून भारतीय भारतीय संस्कृति को देखते हुए लागु किया गया था। देश भर में धारा ३७७ को हटाने की बात पर व्यापक चर्चा हो रही है। जिसमे कुछ लोगों ने इसका अत्यन्त विरोध किया है और कुछ लोग इसे मौलिक अधिकार का चोला पहना रहे है। इस मुद्दा पर दिमाग से नही दिल से सोचने का वक्त है। जो लोग मौलिक अधिकार की बात करते है उन्हें ये सोचना चाहिए की मौलिक अधिकार और swatantra से हट कर समाज की भी कुछ सीमाएं होती है, जिसके अन्दर सभी लोगों को एक सामाजिक उतरदायित्व निभाना होता है।
सम्लेंगिकिकों का धर्म की आर लेना की रामायण और महाभारत कल में भी सम्लेंगिक संबंधो की पुष्टि हुई है , लेकिन उन लोगो को शायद ये पता नही की उन समयों में भी इन लोगों का एक अलग समाज था जो उतम और आदर्श समाज से अलग था।
आज यदि धारा ३७७ को हटा दिया जाता है तो हो सकता है की आगे चल कर वैश्ययों का समाज भी अपने - अपने अधिकारों को ले कर सरक पर आ जाए। इसके आलावा कई एसे वर्ग है जो अप्राकृतिक संबंधो की वकालत करते है। अत इस महामंदी और सूखे के समय लोगों को जन कल्याण के लिए आवाज उठानी चाहिए न की अपनी व्यक्तिगत समस्यायों को कानूनी रूप देने के लिए...
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